श्रीविद्या के कुल, सम्प्रदाय व परम्पराओं का विस्तार !

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श्रीविद्या के चार कुल के अधीन सोलह देवियाँ (महाविद्यायें), नौ सम्प्रदाय, पन्द्रह मूल देव्यौध परम्पराएं, ग्यारह सिद्धौध परम्पराएं व दस गुरु परम्पराएं हैं, जबकि वर्तमान में स्वयंभू गुरु परम्पराएं असंख्य उपलब्ध हैं !

श्रीविद्या के चार कुल :- श्रीकुल, कालीकुल, ताराकुल ओर त्रिपुराकुल होते हैं !

श्रीविद्या की सोलह देवियाँ (महाविद्यायें) :- षोडशी, तारा, काली, त्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुरभैरवी, मातंगी, ललिताम्बा, भुवनेश्वरी, कमला (राजराजेश्वरी), छिन्नमस्ता, बगलामुखी, कामाक्षी, आनंदभैरवी, धूमावती, उन्मत्त्भैरवी और त्रिपुरा आदि सोलह महाविद्याएँ होती हैं !

श्रीविद्या के सम्प्रदाय :- यह मूल व विशुद्ध रूप से वह प्रणाली होती है जहां पर सृष्टि के “विशेष नियन्ता” देवों द्वारा अनन्त ब्रह्माण्ड की नायिका व संचालिका सर्वोच्च शक्ति के शुक्ष्म केन्द्र को साधकर उसे “निष्काम भाव” से आत्मसात कर अनन्य लोकों में अपने अनुचरों को अग्रसारित किया गया होता है, व इस प्रणाली का अनुसरण करने की सृष्टि के “विशेष नियन्ता” देवों के अतिरिक्त लोपामुद्रा जैसी विशेष क्षमतावान शक्ति की ही क्षमता हो सकती है !

इस साधना को करने वाला देव साधक सृष्टि, शरीर व आत्मा के असंख्य रहस्यों को आत्मसात करते हुए श्रीविद्या के क्रमशः चारों कुलों की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि पुरुषार्थों को प्राप्त करता है ! तथा यह साधक क्रमशः चारों कुलों की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के किसी भी कुल की पूर्णाभिषेक दीक्षा, क्रमदीक्षा अथवा भोग दीक्षा (महाविद्या दीक्षा) प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है, तथा श्रीविद्या के नए सम्प्रदाय का प्रवर्तक होता है !

सम्पूर्ण क्रम को अभी तक केवल शिव, मनु, चन्द्र, कुबेर, ह्यग्रीव, अग्नि, सूर्य, लोपामुद्रा, मन्मथ, नन्दिकेश्वर, आनंदभैरव ही पूर्ण कर पाए हैं, जिनमें से ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, नन्दिकेश्वर ओर आनंदभैरव सम्प्रदाय ही वर्तमान में शेष हैं !


श्रीविद्या की मूल देव्यौध परम्पराएं :- यह विशुद्ध रूप से वह प्रणाली होती है जिसमें परमगुह्य गुप्तगायत्री विधान द्वारा अनन्त ब्रह्माण्ड की संचालिका सर्वोच्च शक्ति के चारों आयामों के साधनाक्रम को उच्चकोटि के सिद्ध, योगी, साधु, सन्यासी जन “निष्काम व आध्यात्म लाभ” हेतु प्राप्त करते हैं, व इस प्रणाली का अनुसरण करने की सामाजिक वर्जनाओं से पुर्णतः मुक्त व पूर्ण ब्रह्मचर्य से युक्त “उच्चकोटि के सिद्ध, योगी, साधु, सन्यासी जन” के अतिरिक्त अन्य की क्षमता नहीं होती है ! !

गुप्तगायत्री विधान से इस साधना को करने वाला साधक सृष्टि, शरीर व आत्मा के असंख्य रहस्यों को आत्मसात करते हुए श्रीविद्या के क्रमशः चारों कुलों की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि पुरुषार्थों को प्राप्त कर पराम्बा में विलीन हो जाता है ! तथा यह साधक क्रमशः चारों कुलों की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के किसी भी कुल की पूर्णाभिषेक दीक्षा, क्रमदिक्षा अथवा भोग दीक्षा (महाविद्या दीक्षा) प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है, तथा श्रीविद्या के नए “सम्प्रदाय एवं श्रीविद्या की नई देव्यौध परम्परा का प्रवर्तक” होता है !

इस सम्पूर्ण क्रम को अभी तक केवल शिव, मनु, चन्द्र, कुबेर, ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त, स्कन्द, दुर्वासा, कामराज, कपिल मुनि, नन्दिकेश्वर, आनंदभैरव, श्री कपिलानन्द नाथ, श्री कैवल्यानन्द जी “कौलिक”, व आदि शंकराचार्य ही पूर्ण कर पाए हैं, जिनमें से ह्यग्रीव, लोपामुद्रा, कपिलमुनि, नन्दिकेश्वर, कैवल्यानन्द, आनंदभैरव और आदि शंकराचार्य परम्पराएं ही वर्तमान में शेष हैं !


श्रीविद्या की सिद्धौध परम्पराएं या कुल साधना (श्रीविद्या पूर्णाभिषेक दीक्षा) :- श्रीविद्या के किसी भी एक कुल, सम्प्रदाय व परम्परानुसार पूर्णदीक्षित हुए साधक द्वारा श्रीविद्या के अपने कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना करते हुए निर्द्वंद होकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर पराम्बा में विलीन हो जाता है ! तथा यह साधक भी अपने कुल की सम्पूर्ण चारों अवस्थाओं की कुलोपासना संपन्न करने पर श्रीविद्या के अपने द्वारा साधित कुल की पूर्णाभिषेक दीक्षा, क्रमदीक्षा अथवा भोग दीक्षा (महाविद्या दीक्षा) प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है, तथा श्रीविद्या की सिद्धौध परम्परा का प्रवर्तक व नई गुरु परम्परा का प्रवर्तक होता है न की सम्प्रदाय का प्रवर्तक !

इस विधान को दुर्वासा ऋषि, पुण्यानंद नाथ, अमृतानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ, उमानन्द नाथ, आदि शंकराचार्य, श्री कपिलानन्द नाथ, वामाक्षेपा, महातपा, श्री कैवल्यानन्द जी “कौलिक”, निगमानन्द जी आदि अनेक सिद्ध साधकों ने पूर्ण किया है !


श्रीविद्या की गुरु परम्पराएं या क्रमदीक्षा व भोग साधना (महाविद्या दीक्षा) की परम्पराएं :- यह मूल व विशुद्ध रूप से महाविद्या साधना की परम्पराएं होती हैं, जिनमें “विशुद्ध रूप से केवल भौतिक” लाभ की प्राप्ति के उद्देश्य से श्रीविद्या समूह की पृथक पृथक महाविद्याओं के साधना विधान प्रचलित होते हैं, और सभी महाविद्याएं श्रीविद्या समूह की देवियाँ होने के कारण इसी भ्रमवश अधिकतर सज्जन किन्ही भी महाविद्याओं की साधना को श्रीविद्या साधना मान बैठते हैं !

श्रीविद्या के किसी भी एक कुल, सम्प्रदाय व परम्परा में धर्म, अर्थ व काम में से किन्ही एक या दो की अभिलाषा पूर्ति के निमित्त श्रीविद्या की किन्ही एक या दो महाविद्याओं में दीक्षित हुआ साधक वह महाविद्या साधना संपन्न करने पर केवल धर्म, अर्थ, या काम को ही प्राप्त करने बाद अपने कर्मों को यहीं पर भोगता रहता है, क्योंकि धर्म के साथ अर्थ व काम भी प्राप्त हो जाए यह तो असम्भव नहीं, और धर्म के बिना प्राप्त अर्थ या काम के मद से उत्पन्न हुए प्रतिष्ठा व अहं से धर्म ही बचा रह जाए यह सम्भव ही नहीं है ! तो ऐसे में धर्म के बिना मोक्ष कोई आम के पेड़ पर पका हुआ फल नहीं है जो अर्थ और काम के धन, बल से वो पेड़ ही अधिग्रहण कर लिया जायेगा !!! इस साधना का साधक अपने द्वारा साधित महाविद्या की साधना संपन्न करने पर अपने द्वारा साधित महाविद्या की भोग दीक्षा ही प्रदान करने हेतु स्वतन्त्र व सक्षम होता है, तथा श्रीविद्या के अधीन केवल अपने द्वारा साधित महाविद्या की गुरु परम्परा का वाहक होता है !

इस विधान को परशुराम, दत्तात्रेय, सहजानन्द नाथ, भगानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ, निजात्मानंद नाथ, उमानन्द नाथ, आदि शंकराचार्य, वामाक्षेपा, निगमानन्द जी आदि अनेक सिद्ध साधकों ने पूर्ण किया है, जिसमें श्रीकुल की दत्तात्रेय परम्परा व ताराकुल की वामाक्षेपा परम्परा सर्वाधिक प्रचलन में है !

उपरोक्त सभी चारों कुल आदि में कुलसाधना (पूर्णाभिषेक दीक्षा) हेतु कुलानुसार एक पूर्ण सत्तात्मक विशिष्ट बीजयुक्त एक ही षोडशाक्षरी मन्त्र होता है, जिसके वर्णों के क्रम में कुलानुसार भेद होता है ! जबकि क्रमदीक्षा व भोग साधना (महाविद्या साधना) में प्रत्येक महाविद्या का अपना पृथक पृथक मन्त्र होता है ! श्रीविद्या के इन चार कुलों में अपने साधक को श्रीविद्या साधना के नियमानुसार धर्म में स्थित करके अग्रिम दीक्षा से संपन्न कर अर्थार्जन हेतु अग्रसारित करने वाली बालस्वरुपा – षोडशी, काली, तारा ओर कामाक्षी होती हैं, और श्रीविद्या साधना के नियमानुसार धर्म, अर्थ (तरुणस्वरूपा चार शक्ति) व काम (प्रौढ़स्वरूपा चार शक्ति) की साधना संपन्न कर चुके अपने साधक को अन्त में मोक्ष प्रदान करके स्वयं में समाहित करने वाली वृद्धास्वरुपा – ललिताम्बा, धूमावती, भुवनेश्वरी ओर त्रिपुरा होती हैं !

(यह लेख श्री नीलकण्ठ गिरी जी महाराज द्वारा अपने साधनात्मक शोधों पर लिखित पुस्तक का एक अंश है जिसका सर्वाधिकार व मूल प्रति हमारे पास सुरक्षित है, अतः कोई भी संस्था, संस्थान, प्रकाशक, लेखक या व्यक्ति इस लेख का कोई भी अंश अपने नाम से छापने या प्रचारित करने से पूर्व इस लेख में छुपा लिए गए अनेक तथ्यों के लिए शास्त्रार्थ व संवैधानिक कार्यवाही के लिए तैयार रहना सुनिश्चित करें !)