श्री दस महाविद्याओं के प्रादुर्भाव के विषय में !

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इस श्रृष्टि में ब्रह्माण्ड की रचना एक बहुत ही सुन्दर किन्तु असंख्य रहस्यों व नश्वर उपलब्धियों से परिपूर्ण संयोग है ! जिस संयोग में असंख्य अवस्थाएं, असंख्य गुण, असंख्य स्वभाव, असंख्य क्रियात्मकताओं, असंख्य विद्याओं एवं असंख्य सत्तात्मक, भोगात्मक घटकों व शक्तियों की अनायास ही उत्पत्ति घटित हुई थी, और इस घटनाक्रम में सृजित हुई समस्त उत्पत्तियां पुर्णतः विशुद्ध एवं दिव्य हैं !

इसी प्रक्रिया के मध्य “उर्जा व पदार्थ (शक्ति व तत्व)” की रसानिक अभिक्रिया के परिणाम स्वरूप इस श्रृष्टि की केन्द्रीय सर्वोच्च नियामक एवं क्रियात्मक सत्ता मूल शक्ति की प्रकृति (गुण) स्वरूपी प्रधान षोडश कलाएं एवं प्रवृत्ति (स्वभाव) स्वरूपी प्रधान षोडश योगिनियां, तुरीय आदि प्रधान षोडश अवस्थाएं एवं षोडश आयाम से युक्त क्रिया रूपी षोडश विद्याएं सृजित हुई है ! और कालान्तर में यही शक्तियां “महाविद्याएं” कहलाई गई हैं ! यह सभी महाविद्याएं इस लोक में मानव योनी के सनातन धर्म व संस्कृति से प्रेरित सम्प्रदायों में “महाविद्याओं” के नाम व स्वरूपों से जानी जाती हैं । जबकि इस लोक व अन्य लोकों में सनातन धर्म से प्रेरित सम्प्रदायों के अतिरिक्त अन्य सभी योनी, धर्म व सम्प्रदायों में उनकी अपनी भाषा, संस्कृति व मत के अनुसार अन्य अनेक नामों, स्वरूपों व संज्ञाओं से जानी जाती हैं । किन्तु सांसारिक जीव अपने हित व स्वार्थों की सीमा के कारण केवल दस महाविद्याओं को ही महाविद्या के रूप में जान सका है, जिस कारण से संसार में केवल “दस महाविद्याएं” ही कही जाती हैं !

इस प्रकार से इस श्रृष्टि में षोडशी, तारा, काली, त्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुरभैरवी, मातंगी, ललिताम्बा, भुवनेश्वरी, कमला (राजराजेश्वरी), छिन्नमस्ता, बगलामुखी, कामाक्षी, आनंदभैरवी, धूमावती, उन्मत्त्भैरवी और त्रिपुरा आदि षोडश महाविद्याएं सृजित हुई हैं ! इसके उपरान्त यह षोडश महाविद्याएँ अपनी आठ आठ नायिकाओं को उत्पन्न करती हैं जो कि इनके कुल की देवियाँ कहलाती हैं जैसे :- तारा की :- नीलतारा, उग्रतारा, श्मशान तारा आदि, व काली की :- दक्षिण काली, जयंती काली, भद्रकाली आदि, और प्रत्येक महाविद्या अपनी चार चार योगिनियों को उत्पन्न करती हैं जो कि चौंसठ योगिनियां कहलाती हैं !

इन महाविद्याओं में श्री काली महाविद्या इस श्रष्टि की केन्द्रीय सर्वोच्च नियामक एवं क्रियात्मक सत्ता मूल शक्ति की प्रकृति (गुण) स्वरूपी प्रधान षोडश कलाओं में से प्रथम कला एवं प्रवृत्ति (स्वभाव) स्वरूपी प्रधान षोडश योगिनियों में से प्रथम योगिनी एवं षोडश आयाम से युक्त क्रिया रूपी षोडश विद्याओं में से प्रथम विद्या के रूप में सृजित हुई है, इसलिए श्री महाकाली महाविद्या को प्रथम महाविद्या कहा व माना जाता है ! इसी प्रकार से क्रमशः अन्य महाविद्याएं सृजित हुई हैं !

प्रत्येक महाविद्या का पृथक – पृथक गुण, धर्म, स्वभाव व प्रभाव है तो निश्चित ही सभी महाविद्याएँ भी पृथक – पृथक ही हैं, किन्तु कुछ अहंकारोपासक जीवों में से जिसने जिस महाविद्या को साधा उसी को श्रृष्टि की मूल सत्ता बताना प्रारम्भ किया, जिसके परिणाम स्वरूप इस समाज में अनेक महाविद्या उपासक आपको मिलेंगे किन्तु जिसने जिस महाविद्या को साधा उसी को श्रृष्टि की मूल सत्ता बताकर वह सभी एक दुसरे का विरोध करते हुए ही मिलेंगे, जिससे यह स्पष्ट होता है कि अभी उन्होंने अपने द्वारा साधित शक्ति के तत्व को “अंशमात्र” भी नहीं पहचाना है ! यदि ऐसे जीव अपने द्वारा साधित शक्ति के तत्व को “अंशमात्र” भी पहचान लेते हैं तो कम से कम नैतिक विरोधाभास की कोई सम्भावना तो शेष नहीं रह जाएगी !

किन्तु ऐसा विरोधाभास उत्पन्न करने वाले जीव इस वास्तविकता को स्वीकार कदापि नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह विरोधाभास ही ऐसे जीवों के जीवन यापन का “एकमात्र सहारा” होता है, ओर इस वास्तविकता को स्वीकार नहीं करने वाले जीवों का उद्देश्य व सीमा केवल षट्कर्म, तन्त्र व भौतिक विस्तार तक ही सीमित होने के कारण वह यथार्थ में “शक्ति तत्व” की उपासना न करके शक्ति उपासना के नाम पर असंख्य कर्मबंधनों से परिपूर्ण “अहंकारोपासना” मात्र ही किया करते हैं, ओर इसी कारण से उनको उस मूल प्रकृति शक्ति का पराभौतिक अनन्त स्वरूप कदापि दृष्टिगौचर नहीं हो सकता है ! जिसके परिणाम स्वरूप ऐसे जीवों का विलय भी उनके “कर्मबंधनों के तथाकथित स्वर्ग” में ही होता है !

महाविद्याओं के विषय में एक सत्य यह भी है कि सभी महाविद्याओं की तन्त्र में पृथक व्याख्या की गई है, सकाम अनुष्ठानों में पृथक व्याख्या की गई है, लोकाचार में पृथक व्याख्या की गई है और आध्यात्म विज्ञान में पृथक पुर्णतः विशुद्ध व्याख्या की गई है, ओर ऐसी सभी व्याख्याएं शक्ति का “आह्वान व नामकरण” कर उसका अपने – अपने “श्रेष्ठ, गौण या नीच” उद्देश्य के अनुसार उपयोग करने वाले जीवों के द्वारा की गई हैं ! इस कारण से गुरुगम्य न होकर साहित्य के भरोसे महाविद्याओं के विषय में ज्ञानार्जन करने वाले सज्जन भ्रान्तियों से ग्रस्त होकर विफलताओं को प्राप्त होते हैं ! और इस प्रकार से पृथक – पृथक अवस्थाओं में महाविद्याओं की पृथक – पृथक व्याख्या होने के कारण व उपयोगिता के इस रहस्य को साहित्य के भरोसे ज्ञानार्जन करने पर कभी भी नहीं समझा जा सकता है ! शक्ति के इस अतिगूढ़ रहस्य को केवल गुरुगम्य होकर ही आत्मसात तो अवश्य किया जा सकता है, किन्तु समझा कभी भी नहीं जा सकता है !

!! उपरोक्त भाग श्री नीलकण्ठ गिरी जी महाराज द्वारा अपने साधनात्मक शोधों पर लिखित पुस्तक का एक अंश मात्र है, तथा यह “Copyright Act” के द्वारा संरक्षित है, जिसका सर्वाधिकार व मूल प्रति हमारे पास सुरक्षित है ! अतः कोई इस भाग को अपने नाम से प्रसारित न करे !)