कुण्डलिनी साधना के गोपनीय रहस्य !

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कुंडलिनी जागरण “सृष्टि का एक रहस्यमय सत्य” ???
मानव के अंदर अनेकों प्रकार की सुषुप्त शक्तियों का भंडार है, उनमें कुंडलिनी जागरण का नाम सबसे ऊपर है । कुंडलिनी जागरण की सच्चाई को समझें।
कुंडलिनी का अर्थ है – कुंडल मार कर बैठी हुई कुंड (यानि कटोरा, एक खोखला स्थान) जिसमें एक प्रबल ऊर्जा का स्रोत। जिसे सर्प की संज्ञा दी गई है क्योंकि वह सांप की तरह लहराती हुई, फूंफकारती हुई, ऊपर उठती हुई अनुभव होती है । यह उर्जा ठीक हमारे नाभी केन्द्र के नीचे, हमारी रीढ़ की हड्‌डी के अंत में काम केन्द्र के पास होती है । ईश्वर का हर कार्य नियम बद्ध है । काम सारे संसार के उत्पत्ति, प्रजनन एवं प्रगति की हर प्राणी को मिली हुई एक महाशक्ति है। इतना बडा ऊर्जा का भंडार नाभी केन्द्र के पास होने की वजह निश्चित ही इस केन्द्र को शक्ति प्रदान करना है । कुंडलिनी मूल रूप से काम ऊर्जा है । इसलिये काम ऊर्जा को प्रबल रूप से जाग्रत कर इसे मैथुन में खर्च न कर ऊर्जा को ऊर्ध्वगमन कर अलौकिक शक्तियां और आध्यात्मिक अनुभवों के लिये प्रयोग की जाती है । परंतु सदियों से चले आ रहे कुछ तथ्य जो अब तक अनुभव में आते रहे हैं !

कुंडलिनी जागरण का अध्यात्मिकता से, आत्मदर्शन से, या परमात्मा के दर्शन से प्रारम्भिक स्थिति में कोई लेन-देन नहीं है यह मात्र एक शरीर की प्रबल ऊर्जा का भंडार है जो शरीर में निहित शारीरिक, मानसिक एवं परामानसिक शक्तियों के लिये उपयोग की जा सकती है । इस शक्ति का जागरण मूलतः अहंकार को पुष्ट करता है क्योंकि शक्ति की कामना ही अहंकार की कामना है । क्योंकि हम कुछ विशेष, दूसरों से अधिक शक्तिशाली बनने के लिये, दूसरों को अपने अधीन बनाने के लिये, व दूसरों को निष्कृष्ट साबित करने के लिये, या अहंकार को संतुष्ट करने के लिये शक्ति की कामना करते हैं । अहंकार की कामना और उसकी पुष्टि आध्यात्मिक होने की सबसे बड़ी बाधा है । योग्य गुरु और सही मार्गदर्शन के बिना कुंडलिनी जागरण की इच्छा भी आध्यात्मिकता के दरवाजे हमेशा के लिये बंद कर सकती है । कुंडलिनी शक्ति का आध्यात्मिकता से दूर तक कोई लेन-देन नहीं है यह तो केवल हमारे शरीर की आध्यात्म व साधना करने योग्य हो जाने मात्र की स्थिति भर होती है । इसलिये अज्ञानतावश कुंडलिनी जागरण के नाम पर साधक पहले से भी अधिक अहंकारी हो जाते हैं ।

कुण्डलिनी शक्ति का जागरण आध्यात्म व साधनात्मक जीवन का प्रारंभिक चरण मात्र है, यह निद्रामुक्त होने का शुभ सबेरा है जिसके बाद हमारा कर्म करने का समय व दिन प्रारम्भ होता है न कि कर्म की सम्पूर्णता की संध्या ! कुण्डलिनी शक्ति का जागरण हो जाने के बाद ही साधक का मन, आत्मा व शरीर आध्यात्म व साधनात्मक जीवन में प्रवेश करने के योग्य हो पाता है ! जबकि हमारा अधुरा ज्ञान यह कहता है कि कुण्डलिनी जागरण सर्वोच्च है, इसके जागरण मात्र से हम सर्वसम्पन्न हो जायेंगे !
यही कारण है कि आज तक राम कृष्ण बुद्ध महावीर या अन्य किसी ने कुंडलिनी शब्द की चर्चा नहीं की और न ही इसको जगाने का कभी रत्ती भर भी महत्व दिया, और न ही इसकी चर्चा की है, क्योंकि यह कोई लक्ष्य नहीं है, बल्कि यह तो प्रारम्भ है देहगत विकारों से आगे निकलने का ।

जिस तरह गीता के साथ हुआ ठीक वो ही कुंडलिनी के साथ भी हो रहा है। एक व्यक्ति के जागरण से गीता की उत्पत्ति हुई और उसके बाद सदियों से हर कोई उसकी अपने ढंग से व्याखया किये जा रहा है। गीता उनके स्वयं के जागरण की उपज नहीं है। दूसरे के जागरण और स्वाद की वह व्याखया कर रहे हैं । जागे कृष्ण, स्वाद उन्होंने चखा और बयान किया । हमने कुछ भी आज तक चखा नहीं । हम दूसरे के खाये हुये स्वाद की बड़े आनंद से व्याखया कर रहे होते हैं उसी तरह कुंडलिनी जागरण का भी हाल है । कभी किसी ने प्रकृति के नियमों के विपरीत जाकर हठयोग की जटिल प्रक्रियाओं से कुंडलिनी को जगाया होगा और उसके जागरण के अनुभव को संचित कर व्याखया की, उसके बाद सदियों से हजारों लोगों ने प्रयास किये और आज तक करते जा रहे हैं । शायद ही किसी की अब तक जागी हो । बस गीता की तरह सब दूसरों के स्वाद का बढिया बखान किये जा रहे हैं । जागी किसी की नहीं है परंतु कुंडलिनी का ऐसा बखान कर रहे हैं कि एक बार तो सचमुच कुंडलिनी जगाया हुआ व्यक्ति भी इनकी बातें सुनकर या पढ़ कर हैरान हो जाये कि लोग बगैर मीठाई खाये भी उसके स्वाद का कितना सुन्दर बखान कर सकते हैं !!!

यही सब कुछ हो रहा है कुंडलिनी के साथ भी । शरीर शुद्धि और मानसिक शुद्धि से चक्र शुद्धि होती है और चक्र की शुद्धि होते ही उपर का मार्ग अवरोध रहित साफ पाकर कुंडलिनी के भीतर की ऊर्जा स्वतः ही ऊर्ध्वगमन करने लगती है । उसको ऊपर उठाना नहीं पड़ता है ।
हठयोग कुंडलिनी को जर्बदस्ती ऊपर उठाने का प्रयोग है । शक्तिपात और सहज ध्यान की प्रक्रियायें अपने आप कुंडलिनी के ऊपर उठने के कारण बन जाते हैं जो स्वभाविक है । इसमें हानि के बजाय सिर्फ लाभ होता है और हठयोग में लाभ के बजाय हानि की विक्षिप्तता, शारीरिक, मानसिक कष्ट की ज्यादा संभावना होती है ।

एक आदमी जब बुद्धत्व को प्राप्त होता है तो सारे विश्व को उसकी सुगंध का तपस्या का लाभ मिलता है और हजारों के जीवन में रूपांतरण आता है, बुद्धत्य के फूल खिलते हैं । परंतु कुंडलिनी जागरण पूरी तरह एक व्यक्तिगत अनुभूति एवं उपलब्धि है जिसका एक प्रतिशत भी लाभ समाज को, विश्व को नहीं मिलता, न ही किसी एक के कुंडलिनी जागरण से हजारों लोग रूपांतरित हो पाते हैं, हजारों तो दूर एक व्यक्ति भी किसी और के कुंडलिनी जागरण से प्रभवित नहीं होता है, भारत में ही क्या पुरे विश्वभर में सैकड़ों संत, महात्मा, गुरू, योगाचार्य और साधक गण कुंडलिनी जागरण का दावा करते हैं और लाखों को कुण्डली जागरण का व्यवसायिक प्रशिक्षण भी देकर अकूत धन का अर्जन कर रहे हैं, लेकिन क्या योगदान है इनका समाज की प्रगति में, कौनसी धर्मांधता, अनैतिकता जैसी बुराईयों पर इसका रत्ती भर भी प्रभाव पड़ा है ???

सबसे बड़ी हैरानी की बात यह है कि आज तक किसी भी बड़े संत पुरूषों ने कुंडलिनी जागरण को प्रधानता ही नहीं दी है । फिर भी किन्हीं एक प्रतिशत की कुण्डलिनी जाग्रत होने पर उनमें आध्यात्मिक तेज, आनंद, या प्रभाव देखने में आया तो साथ ही उनको भयानक भ्रम में उलझे देखकर बहुत दुःख होता है क्योंकि उनके चेहरे पर अहंकार के भाव स्पष्ट होते हैं । उनकी मूर्खता या भटकाव पर दया आती है क्योंकि उनके सामान्य चेतना में आते ही उनकी आदतें प्रतिक्रियायें या स्वभाव में जरा सा भी कोई परिवर्तन देखने को नहीं रहता है ।

वर्तमान समय में कुंडलिनी जागरण के नाम पर किये जाने वाले विभिन्न ध्यान के प्रयोग भी एक शराब के नशे की तरह थोडी देर तक एक दूसरी दुनिया में ले जाते हैं जहाँ से बाहर आते ही सब कुछ पूर्ववत् ही रहता है । जबकि वास्तविकता से इन प्रयोगों का कोई लेना देना ही नहीं है ! कुंडलिनी जागरण एक हठयोग की क्रिया है जो प्रकृति के नियम के ठीक विरूद्ध कुछ करने का घातक प्रयोग है “जो कि हमारे अवचेतन शरीर को नियमित चैतन्य व क्रियाशील रखने के लिए किया जाता है” । परमात्मा ने यूँ हीं इस अत्यन्त प्रबलतम महाशक्ति को कामकेन्द्र के पास स्थपित नहीं किया है । इसको सहस्त्रार तक ले जाने के असंतुलित प्रयास में यह विक्षिप्तता, पागलपन, घातक शारीरिक रोग, मानसिक असंतुलन जैसे दुःखों को न्योता भी दे सकता है ।

कुंडलिनी जगानी नहीं पड़ती बल्कि स्वयं के जाग जाने से (आत्मदर्शन) वह स्वभाविक रूप से ऊपर के चक्रों में यात्रा करनी शुरू कर देती है। कुंडलिनी जागरण आत्मदर्शन, साक्षीत्व, जागरूकता का प्रतिफल है । जैसे-जैसे हम जागरूक होकर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक अवरोधों से मुक्त होने लगते हैं (जो हम अपनी अज्ञानता के कारण शरीर के विरूद्ध जाकर पैदा करते हैं और सहज प्रकृति के नियमों के साथ जुड कर बहने लगते हैं) । हमारे तन मन शुद्ध होकर, विस्तृत होकर अपने आप कुंडलिनी शक्ति को उपर उठने के लिये विवश कर देते हैं ।

कुंडलिनी जागरण के नाम पर जो अनेकों अनुभव साधक बयान करते हैं वह एक सामान्य हर व्यक्ति की परामानसिक शक्तियां है जो किसी भी प्रकार के ध्यान के प्रयासों से आपकी अति शिथिल अवस्था में सतह पर आने लगती है और यही अनुभवों को आपके गुरू कुंडलिनी जागरण के अनुभव बताकर आपके अहंकार को पुष्ट कर देते हैं या आपको संतुष्ट कर देते हैं जिससे आपको लगता है कि आप सही राह पर हैं । सही गुरू के साथ है और कुछ उपलब्धिया प्राप्त कर रहे हैं । इसी घातक भ्रम में हम अपने अमूल्य जीवन को चूक जाते हैं और जीवन का महास्वाद, महाउत्सव आप भंग कर देंते हैं । जबकि कुण्डलिनी जागने का तात्पर्य मात्र इतना सा ही है कि कुण्डलिनी जागने के बाद आप आध्यात्म व साधनात्मक जीवन का प्रारम्भ करने के योग्य हो गए हैं, इससे अधिक और कुछ नहीं है !

हम क्यों ”कुंडलिनी जागरण” जैसे शब्दों के पीछे भागते हैं ? क्योंकि इसके बारे में बढ़ा-चढ़ा कर इतना कुछ अनाप-शनाप लिख दिया गया है और चूंकि आजतक किसी भी आडम्बरी की कुंडलिनी जाग नहीं सकी है तो वास्तविकता का बखान भी कैसे करेगा ? ये तो असाध्य, रहस्यमय, कठिन तपस्या से ही जाग्रत होती है और जागते ही साधक को मानसिक व निर्णायक क्षमता से संपन्न कर देती है ।
वहीँ दूसरी और हमारी आज की पढ़ी लिखी मूर्ख पीढ़ी इस गहन साधना को भी “flipcart” से ऑनलाईन प्राप्त करने के प्रयास में रहती है !