मन्त्र क्या हैं ? व मन्त्रों का स्वरूप क्या है ?

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हमें मन्त्रों के विषय में जानने के लिए सर्वप्रथम वेदों को जानना होगा कि वेद क्या हैं ? ओर वेदों की उत्पत्ति कहाँ ओर किस प्रकार से हुई है ? वेदों को जाने बिना हम मन्त्रों को जान ही नहीं सकते हैं !

मूलतः वेद किसी एक धर्म या संस्कृति की सम्पत्ति नहीं हैं ! वेदों में लिखे मन्त्र सृष्टि के निर्माण के क्रम के समय जब सभी तत्वों से निर्मित महापिण्ड में शक्ति के प्रभाव से महाविस्फोट होने पर उस महापिण्ड के टुकड़े तितर-बितर होकर निर्वात में एक दुसरे से टकराकर विखंडित हो रहे थे, उस समय उस महापिण्ड के जो टुकड़े तितर-बितर होकर शक्ति के प्रभाव से गुरुत्वाकर्षण युक्त होकर निर्वात में ग्रह, उपग्रह, नक्षत्रों के रूप में विद्यमान हो गए उन्ही में से एक पृथ्वी ग्रह पर हम वर्तमान में अनेक संस्कृतियों से युक्त होकर स्थित हैं, इसी प्रकार से अन्य ग्रहों पर भी आदिकाल से ही अनेक संस्कृतियाँ विकसित हैं, ओर उसी समय महाविस्फोट से जो ध्वनियाँ उन्पन्न हुई ओर दीर्घ समय तक निर्वात में गूंजती रही थी, उन ध्वनियों को ही कालांतर में हमारे ऋषि मुनियों ने निर्वात में से अत्यंत शुक्ष्मता से ग्रहण कर उनको वेद अर्थात प्रथम विद्या के नाम से लिपिबद्ध कर दिया था, उन ध्वनियों को उनकी मूल लय में लिखने से छंदों की उत्पत्ति हुई ओर यही लयबद्ध छंद मूल मन्त्र हैं !

इस महाविस्फोट में सर्वप्रथम महाप्रणव “ॐ” की उत्पत्ति हुई थी, जो कि किसी भी विस्फोट के समय सदैव स्वतः ही उत्पन्न होती है ! जब कभी कोई भी विस्फोट होता है तब सबसे पहले “ऊँ” के जैसी विचित्र ध्वनी उत्पन्न होती है, ओर वो ही “ॐ” का सही उच्चारण होता है !

इस लिए ही हमारे ऋषि मुनियो ने इन ध्वनियों को वेदों के मन्त्रों के रूप में जब लिखा तो यह संगीत के चिन्हों की भांति केवल मात्राओं में लिखे गए थे ना कि शब्दों में . प्राचीन गुरुकुलों में यही विद्या मूल ध्वनी के रूप में सिखाई जाती थी, जिसे केवल ध्वनी के रूप में सुनकर सीखा जा सकता है ना की शब्दों के रूप में पढ़कर ! परन्तु ज्ञानांध व विद्याहंकारी ब्राह्मणवाद ने इसे शब्दों के रूप में लिखकर ग्रन्थ बनाकर इसका सारा प्रभाव ही धूमिल कर दिया ! ओर यही कारण है कि आज हम शब्दों में लिखे हुए मन्त्रों को पढ़कर या जपकर उनसे होने वाले लाभ से वंचित हैं . आज की लिपियों को पढ़ने वाले प्राणी वेदों की उस भाषा को सहजता से पढ़ या समझ पाने में सक्षम ही नहीं रह गए हैं, उदाहरण के लिए आप 60-70 वर्ष पूर्व की ही कोई संस्कृत की पुस्तक पढ़कर देख लेना तो यह सब आपकी समझ में आ जायेगा !

इसलिए वेद किसी एक धर्म या संस्कृति की सम्पत्ति नहीं हैं, यह तो सृष्टि के महासृजन के समय ज्ञान, विज्ञान व नव सृजन के गहन सूत्रों से परिपूर्ण प्रथम ब्रह्मनाद हैं, जो कि समस्त धर्म व संस्कृतियों के प्राणीमात्र के लिए ग्राह्य विद्या है ! वेद ही सर्वोपरि ज्ञान के मूल ओर सर्वोपरि सत्ता का नाद हैं, जबकि पुराण, शास्त्र, कुरान व बाईबिल आदि अपने-अपने धर्मानुसार सर्वोपरि सत्ता के नाम पर लिखे गए मानव रचित ग्रन्थ हैं ना कि सर्वोपरि !

आज भी हमारी संस्कृति में किसी साधना को करने के निमित्त दीक्षा लेना अनिवार्य है, क्योंकि दीक्षा के समय गुरु अपने शिष्यों के द्वारा विशेष अनुष्ठानों को संपन्न कराकर अपने उन शिष्यों के मन, आत्मा व देह को ग्राह्य व निर्द्वंद बनाकर उन्हें वेदों, शास्त्रों के विशिष्ट ध्वनी में उपदेश या मन्त्र सुनाते हैं, इस प्रकरण में विशेष अनुष्ठानों के द्वारा निर्मल व ग्राह्य हुए शिष्यों के मन, आत्मा व देह उन वेदोक्त उपदेशों को उसी मूल ध्वनी के रूप में बीज की भांति ग्रहण कर जाते हैं !

हमारे ऋषि मुनि अपने गुरुकुल मे शिष्यो को मंत्रो का उच्चारण सिखाया करते थे जो मौखिक था, लिखित नही !! कहाँ सुर लंबा करना है और कहां धीमा करना है, यह सब सिखाया जाता था . बिल्कुल वैसे ही जैसे आप गायकी सीखते हैं, यह सब अभ्यास व उच्चारण पर निर्भर करता है ना की पढ़के रटना है ! मन्त्रों में तो सारा खेल ही ध्वनि का है, और ध्वनि लिखी नही जा सकती ! केवल शब्द लिखा जा सकता है !!

और आज आप मन्त्रों के स्थान पर शब्द बोल रहे हो, ना की मन्त्रों की ध्वनि निकाल रहे हो, तो फिर मंत्र असर कैसे करेगा ??? यदि आप खांसते हो तो आप उस खांसने की ध्वनी को कैसे लिखोगे ? “खोंखों या उहु उहू” पर ये तो शब्द बन गया ये वो मूल ध्वनि नही है जो खांसते समय निकली थी ! महत्व ध्वनि का है और हम शब्द मे उलझ जाते हैं . आप इसे भाषानुसार पढ़ोगे तो कुछ भी हासिल नही होगा, मूल ध्वनि सुनोगे या उच्चारण करोगे तो उसका मन मस्तिष्क ओर हमारे अन्दर व्याप्त ऊर्जा शक्ति पर प्रभाव होगा !! ध्वनि स्वयं में एक उर्जा है जो मंत्रो मे व्याप्त होती है और असर उसी का होता है ना की शब्दो का ! मंत्रो से ही संगीत और गायकी निकली है, शास्त्रीय संगीत या गायन मे जो प्रभाव है उसका आधार वही ध्वनि है जो मंत्रो मे होती है. सुबह, दोपहर, शाम और रात के परिवेश के अनुसार राग बनाए गये हैं. अब उस रागो के असर से आप मंत्र के असर को समझ सकते हैं. जीवन के विशेष अवसर व परिस्थितियों के लिए विशेष मंत्र बनाए गये हैं !

सम्पूर्ण सृष्टि में मात्र ध्वनि पैदा होती है, शब्द नही ! हवा की सायँ सायँ, पेड़ो के पत्तो की आपस मे टकरा कर आती आवाज़, पानी का कल कल, जानवरो की आवाज़े, पंछीयो की चहचाहट, मशीनो की आवाज़, हमारे कदमो की आहट व हमारी हँसी, रोना, चीखना सारे भाव सिर्फ़ ध्वनि पैदा करते है. ओर शब्द हमारी सिद्धान्तहीन उत्पत्ति मात्र है, अपनी इस सिद्धान्तहीन मनमुखी सोच के कारण हम असली शक्ति (ध्वनि) से दूर होते चले गये ! सच कहूँ तो बिना शब्द के जो ध्वनि हम सुनते है उससे हम सही नतीजे पर पहुँच जाते हैं, शब्द उल्टा भटका देते है. अँधा आदमी या कोई बच्चा या पागल, कोई भी हो ध्वनि सुनकर सब समझ जाएगा कि क्या हुआ है ! शब्द झूठ बोल सकते है परन्तु ध्वनि कभी झूठ नही बोलती है !